पुष्पा का पुष्प-1

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सुबह की स्वच्छ ताजी हवा में गुलाब के ताजा फूलों की खुशबू फैल रही थी। शहर के कोलाहल से दूर प्रदूषणमुक्त शांत वातावरण में फूलों की सुगंधभरी ताजी हवा में घूमते हुए मुझे बहुत ही अच्छा लग रहा था। हर तरफ गुलाब फैले थे भाँति भाँति के- लाल, गुलाबी, काले, बैंगनी, उजले… !

मैं उनके कलेक्शन की मन ही मन तारीफ करता क्यारियों के बीच काँटों से सावधानी से बचता घूम रहा था। पुष्पा थोड़ी दूर पर बाड़ के पास फूल तोड़ रही थी।

पुष्पा के पिताजी का बड़ा सा फूलों का बाग था, शहर के नजदीक ही एक गाँव में। वे फूलों की खेती करते थे। मैं छुट्टियों में वहाँ घूमने आया था। पुष्पा ने मुझे बुलाया था, ”आकर कभी मेरा बाग देखो। बहुत अच्छा लगेगा।”

उसने गलत नहीं कहा था। मुझे बहुत ही अच्छा लग रहा था। और फूलों की क्यारियो के बीच स्वयं फूल-सी खिली पुष्पा भी मुझे कम अच्छी नहीं लग रही थी। मैं भौंरे-सा उसके आकर्षण में घूम रहा था।

मैं घूमता घूमता उसके पास पहुँचा। वह कुशलता से काँटों से बचती हुई फूलों को डंठल से नीचे पकड़कर कैंची से काट लेती। मुझे पास आता देखकर उसके चेहरे पर एक गर्व और खुशी का भाव चला आया।

“बड़ी कुशलता से तोड़ती हो। काँटे नहीं चुभते?”

वह कुछ नहीं बोली। बस गर्व से मुस्कुराई।

मुझे उसका घमण्ड अच्छा लगा। काश, मैं इसे ही तोड़ लेता।

“मैं भी तोडूँ?”

“काँटे चुभेंगे !” उसकी आवाज में गर्व था।

“मुझे परवाह नहीं !”

“अच्छा!” उसने मुझे देखकर भौंहें उठाई,”लेट मी सी?” उसने अंग्रेजी में कहा। कैंची नहीं दी।

मैंने हाथ बढ़ाया और बहुत बचाकर एक डंठल को तोड़ने की कोशिश की। डंठल टूटकर टेढ़ी हो गई मगर डाल से अलग नहीं हुई। उसे अलग करने के लिए टूटी डंठल को घुमाया।

“जानते हो !” उसने कहा।

थोड़ी कोशिश से डंठल टूट गई मगर हाथ में काँटों की खरोंच लग ही गई। एक-दो पंखुड़ियाँ भी झटकने में टूट गईं। मैंने फूल उसके हाथ में दे दिया।

“देखा?” उसने खरोंच में जमा होते खून की बूंद को देखते हुए कहा।

उसने टोकरी में से छोटे-से डिब्बे से डेटाल भीगा रूई का फाहा निकाला और उससे खरोंच का लहू पोंछते हुए दबा दिया। वह डेटाल भीगा फाहा छोटी सी शीशी में साथ रखती थी। मैं उसके झुके सिर को, एक से मेरा हाथ पकड़े दूसरे से जख्म पर रुई घुमाते उसके गोरे नाजुक हाथों को देखता रहा।

“मगर …” मैंने बात आधी छोड़ दी। उसने उत्सुकता से मेरी ओर देखा।

“मैं तो एक खास फूल तोड़ना चाहता हूँ।” मैंने उसके चेहरे को गौर से देखते हुए पूरा किया।

उसके चेहरे पर क्षणमात्र के लिए एक अजब-सा भाव आया। बात को कुछ ताड़ती हुई-सी प्रतीत हुई। मैंने उसके प्रश्नवाचक चेहरे पर से दृष्टि हटाकर सर से पाँव तक नजर दौड़ाई और उसकी आँखों में देखते हुए आगे कहा,”अगर वह इजाजत दे तो !”

वह समझ गई। मगर लजाकर या घबराकर दृष्टि नहीं हटाई। वह निडर थी। मुझे उसकी यह बात अच्छी लगती थी।

“कितने फूल तोड़े हैं अब तक?” उसने कुछ ठहर कर पूछा।

“झूठ नहीं बोलूँगा ! सिर्फ एक ! मगर यह फूल बहुत खास है।”

उसे झूठ से नफरत थी। सच सुनना पसंद करती थी। कड़वा हो तो भी। फिर उसी कॉलेज में तो पढ़ती थी।

“उससे भी यही कहा होगा, “यह फूल बहुत खास है।” वह कुछ मजा लेती, कुछ मजाक उड़ाती बोली,”फुसलाने का पुराना तरीका है।”

“नहीं पुष्पा, यह सच नहीं। मैं पहले भी झूठ बोल सकता था मगर ऐसा नहीं किया। सचमुच यह फूल बेहद खास है। औरों से अलग ! दुर्लभ है।”

प्रशंसा से वह प्रसन्न हुई। कुछ मूड में आ गई। “क्या खास है इसमें?” कुछ मजा लेते हुए बोली।

वह गर्व भरी नजरों से फूल को देखते हुए उसे अपनी चुटकी में घुमा रही थी, अपनी तारीफ सुनना चाह रही थी। मैंने अपना दाँव खेला।

“यह अगर उसकी इजाजत मिले तभी बताऊँगा।” “इजाजत है !” उसने बात को हँसी में उड़ाते हुए कहा।

“सच? क्या मुझे फूल तोड़ने की इजाजत है?” मैंने भी उसी अंदाज में उसके टालने की कोशिश को व्यर्थ करते हुए कहा।

अब वह मुश्किल में थी। इस बात को हँसी में उड़ाना कठिन था। वह गंभीर हो गई।

यही सही समय था अगला वार करने का, मुझे उसके मजबूत स्वभाव का भरोसा था, मैंने उसके हाथ के फूल पर अपनी हथेली रखकर दूसरे हाथ से उसकी हथेली को नीचे से सहारा देते हुए कहा,”सच पुष्पा। यकीन मानो। यह साधारण नहीं। इसका सौंदर्य, इसका रूप, इसकी महक, इसका सब कुछ अतुलनीय है। यह बहुत भाग्य से पाने लायक है।”

उस पर प्रशंसा का असर हो रहा था। उसे तारीफ अच्छी लगती थी। मुस्कुराने की कोशिश की।

“क्या करोगे इसका? तुम इसे सूंघकर छोड़ दोगे। मैं ऐसी … ” बोलते बोलते रुक गई।

अनजाने में ही वह फूलों के बहाने को छोड़कर सीधे अपने बारे में बोलने लगी थी।

मैंने अपने दिल पर हाथ रखते हुए कहा,”भगवान कसम, दिल में बसा कर रखूँगा।”

“यह काफी नहीं।”

मैंने उसके हाथ से गुलाब का फूल लेकर अपनी कमीज के बटन में टाँक लिया।

“इसे सदा के लिए अपनी जिन्दगी में जगह दूँगा।”

थोड़ी देर के लिए चुप्पी छाई रही।

“इतनी दूर जाने की जरूरत नहीं। वह सम्भलती हुई बोली।

मैं जानता था वह मुझे पसंद करती थी। और लड़कों को उतना भाव नहीं देती थी जितना मुझे।मगर उसे प्यार कह सकना मुश्किल था। शादी के निर्णय के लिए सिर्फ प्यार जरूरी होता है ऐसा न तो मैं मानता था न वह। मगर मैं उसे पाने के लालच में काफी आगे का वादा कर गया था। वह मुझे अच्छी लगती थी, बल्कि बहुत अच्छी लगती थी। तेज थी। सुंदर भी बहुत थी। गोरा रंग, खड़ी लम्बी नाक, लाल भरे होंठ, छरहरी। चुस्त जींस शर्ट में उसकी गठन खुलकर बिखरती। लम्बी, सीधी चलने वाली। सक्रिय रहती। कई लड़कियाँ जिन संकोचों में खुद को बांधे रखती हैं उनसे वह अलग थी। उसके साथ बात करने में मजा आता था। लगता था ऐसी उत्साही साथी मिले तो क्या बात है। कभी रात की तनहाई में अपने हाथ से करता तो उसकी कल्पना करता हुआ।

“थोड़ी दूर की इजाजत है?” मैंने फिर पूछा।

वह सिर झुकाकर हँसी,”तुम बुद्धू हो। कुछ समझते नहीं !”

मुझे गुदगुदी हुई। आखिरकार यह भी लड़की ही है, खुद कैसे कहेगी।

उसकी स्वीकृति मुझे विभोर कर गई। उम्मीद थी, मगर विश्वास नहीं था। लगा जन्नत मिल गई।

“तुम और लड़कियों की तरह नहीं हो, तुमसे सुनना अच्छा लगता है।”

“ओके ! मगर इसका मतलब संकेत समझने में नासमझी तो नहीं होती है।”

यह थी वो ! बोल सकती थी। मैं उसकी इसी खूबी पर तो मरता था।

“ठीक है।” मैंने सिर झुकाते हुए कहा, “मैं नतमस्तक हुआ।”

“खूब !” उसने मेरी उस अदा का आनन्द लिया,”मेरे सामने बार बार होना पड़ेगा। सोच लो?”

तो क्या वह भी कहीं अवचेतन में मुझसे स्थायी रूप से जुड़ने के लिए सोच रही है? बार बार झुकने से क्या मतलब है?

“मैं तो सदा से हूँ।” मैंने कहा। “मस्का मत लगाओ।” अब वह ऊपर हो रही थी।

झुके झुके मेरे दिमाग में एक खयाल आया। पुष्पा के लायक जवाब होगा।

“बताऊँ, और कितना झुकने की तमन्ना है?” “कितना?” वह मेरे गंतव्य को समझ नहीं पाई थी मैं उसे कहाँ ले जाना चाहता था।

मैं और झुका। उसके गले के नस की एक नीली सी छाया नीचे जाकर खो रही थी। उठानों के नीचे कुछ धड़क रहा था। दुपट्टा नहीं ओढ़ती थी।

“बस?” वह इसे खेल समझ रही थी।

मैं और झुका। इस बार उसके स्तन मेरे सामने थे। फ्रॉक में उभरे हुए। उनकी नोकों के बहुत हल्के उभार का पता चल रहा था। यह कहानी आप अन्तर्वासना डॉट कॉम पर पढ़ रहे हैं।

“बस?” मुझे पूरा झुकाने के चक्कर में वह बेखबर चुग्गा खाती कबूतरी की तरह जाल की तरफ बढ़ी जा रही थी।

मैं और झुका। उरोजों के नीचे की ढलान, समतल पेट और उससे नीचे उसकी संकरी कमर। फ्रॉक के कपड़े में लिपटी हुई। नीचे दोनों तरफ फैलते कूल्हे।

“गो ऑन।” वह जीत के नशे में गाफिल थी।

अब मैं बैठ गया, घुटनों पर। मेरा गंतव्य आ गया था जिसके सपने मैं बार बार देखता था। मैंने घुटनों पर बैठे सिर झुकाया। वह समझी कि अब मैं नमाज की मुद्रा में दोजानूँ होऊँगा। सोच रही थी मैं अंतत: साष्टांग बिछ जाउंगा। मैंने उसके नितम्बों को बाँहों में घेरा और कमर के नीचे उस स्थान पर जहाँ भीतर जांघों का संधिस्थल था उसमें मुँह घुसाकर जोर से चूम लिया। मेरे होटों पर और नाक पर कपड़ों की सलवटों के नीचे मुलायम गद्देदार मांसल उभार महसूस हुआ।

वह ठगी-सी खड़ी रही गई। उसके मुँह से बस आश्चर्य में निकला,”अरे !”

मैंने जहाँ चुम्बन की मुहर लगाई थी उस स्थान को देखते हुए कहा, “यह फूल सबसे अनूठा है। कुदरत का सबसे बेहतरीन करिश्मा। इसके सामने सब फूल बेकार हैं।”

वह चुप थी। एक आघात में। इतने बड़े दुस्साहस की उम्मीद नहीं की थी। मुझे लगा वह डाँटेगी और चल देगी। मगर मुझे उसके मेरे प्रति आकर्षण का भरोसा भी था। तभी मैं इतनी हिम्मत कर गया था। उसके चेहरे का भाव थोड़ा नरम पड़ा। उसमें सम्हलने की क्षमता बेशुमार थी। हाथों से मेरा सिर दूर हटाते हुए बोली,”यह क्या कर रहे हो?”

“वही जो मैं बाद में बहुत अच्छे से करूँगा।” उसे हराने के बाद अब मैं हावी होने की स्थिति में था। वह अभी तक अपनी तेज तर्रारी और तेज दिमाग को ही बहुत भाव देती आई थी।

वह कुछ देर चुप रह गई।

“छी: ! तुम्हें गंदा नहीं लगता?”

मैं उठा। उसके हाथ से गूलाब का फूल ले लिया। उसे चुटकियों में घुमाते हुए धीरे धीरे बोला,”मैं उस सबसे बेशकीमती फूल से सबसे खास व्यव्हार करूँगा। उसमें डूबकर प्यार करूंगा। उसकी पंखुड़ियाँ खोलूंगा- ऐसे।”

मैंने उंगलियों से गुलाब की धीरे धीरे उसकी पंखुड़ियाँ फैलाईं,”फिर उसे चूमूंगा, ऐसे, यहाँ।”

मैंने फैली पंखुड़ियों के बीच मुँह घुसाकर उसके भीतर गर्भस्थल को चूमा, चूमने की चुसकारी की जोर की आवाज की।

“बड़ी हिम्मत है !”

“और बताऊँ, क्या करूँगा?” पता नहीं कहाँ से आज मेरी हिम्मत और अक्ल दोनों काम कर रहे थे। आज मैं उसे आश्चर्य पर आश्चर्य दे रहा था। मैंने बाड़ से बबूल का एक सूखा काँटा तोड़ा और उसे फूल के गर्भ में चुभो दिया।

वह शर्म से लाल हो गई।

“अब बताओ।” मैंने कहा। जैसे पूछ रहा होऊँ,”कैसा रहा?”

मगर जो शर्म से सिकुड़ जाए वह पुष्पा क्या। वह तो बराबर का जवाब देने में यकीन रखती थी। उसे अपनी जवाब देने की क्षमता का यकीन था। उसने काँटे को फूल से निकाला जिसका नुकीला सिरा फूल के रस में भीगा हुआ था। उसने उसे धीरे धीरे उठाया और मुँह में लेकर चूस लिया।

मैं उसे देखता रह गया।

कहानी जारी रहेगी।

सुबह की स्वच्छ ताजी हवा में गुलाब के ताजा फूलों की खुशबू फैल रही थी। शहर के कोलाहल से दूर प्रदूषणमुक्त शांत वातावरण में फूलों की सुगंधभरी ताजी हवा में घूमते हुए मुझे बहुत ही अच्छा लग रहा था। हर तरफ गुलाब फैले थे भाँति भाँति के- लाल, गुलाबी, काले, बैंगनी, उजले… !

मैं उनके कलेक्शन की मन ही मन तारीफ करता क्यारियों के बीच काँटों से सावधानी से बचता घूम रहा था। पुष्पा थोड़ी दूर पर बाड़ के पास फूल तोड़ रही थी।

पुष्पा के पिताजी का बड़ा सा फूलों का बाग था, शहर के नजदीक ही एक गाँव में। वे फूलों की खेती करते थे। मैं छुट्टियों में वहाँ घूमने आया था। पुष्पा ने मुझे बुलाया था, ”आकर कभी मेरा बाग देखो। बहुत अच्छा लगेगा।”

उसने गलत नहीं कहा था। मुझे बहुत ही अच्छा लग रहा था। और फूलों की क्यारियो के बीच स्वयं फूल-सी खिली पुष्पा भी मुझे कम अच्छी नहीं लग रही थी। मैं भौंरे-सा उसके आकर्षण में घूम रहा था।

मैं घूमता घूमता उसके पास पहुँचा। वह कुशलता से काँटों से बचती हुई फूलों को डंठल से नीचे पकड़कर कैंची से काट लेती। मुझे पास आता देखकर उसके चेहरे पर एक गर्व और खुशी का भाव चला आया।

“बड़ी कुशलता से तोड़ती हो। काँटे नहीं चुभते?”

वह कुछ नहीं बोली। बस गर्व से मुस्कुराई।

मुझे उसका घमण्ड अच्छा लगा। काश, मैं इसे ही तोड़ लेता।

“मैं भी तोडूँ?”

“काँटे चुभेंगे !” उसकी आवाज में गर्व था।

“मुझे परवाह नहीं !”

“अच्छा!” उसने मुझे देखकर भौंहें उठाई,”लेट मी सी?” उसने अंग्रेजी में कहा। कैंची नहीं दी।

मैंने हाथ बढ़ाया और बहुत बचाकर एक डंठल को तोड़ने की कोशिश की। डंठल टूटकर टेढ़ी हो गई मगर डाल से अलग नहीं हुई। उसे अलग करने के लिए टूटी डंठल को घुमाया।

“जानते हो !” उसने कहा।

थोड़ी कोशिश से डंठल टूट गई मगर हाथ में काँटों की खरोंच लग ही गई। एक-दो पंखुड़ियाँ भी झटकने में टूट गईं। मैंने फूल उसके हाथ में दे दिया।

“देखा?” उसने खरोंच में जमा होते खून की बूंद को देखते हुए कहा।

उसने टोकरी में से छोटे-से डिब्बे से डेटाल भीगा रूई का फाहा निकाला और उससे खरोंच का लहू पोंछते हुए दबा दिया। वह डेटाल भीगा फाहा छोटी सी शीशी में साथ रखती थी। मैं उसके झुके सिर को, एक से मेरा हाथ पकड़े दूसरे से जख्म पर रुई घुमाते उसके गोरे नाजुक हाथों को देखता रहा।

“मगर …” मैंने बात आधी छोड़ दी। उसने उत्सुकता से मेरी ओर देखा।

“मैं तो एक खास फूल तोड़ना चाहता हूँ।” मैंने उसके चेहरे को गौर से देखते हुए पूरा किया।

उसके चेहरे पर क्षणमात्र के लिए एक अजब-सा भाव आया। बात को कुछ ताड़ती हुई-सी प्रतीत हुई। मैंने उसके प्रश्नवाचक चेहरे पर से दृष्टि हटाकर सर से पाँव तक नजर दौड़ाई और उसकी आँखों में देखते हुए आगे कहा,”अगर वह इजाजत दे तो !”

वह समझ गई। मगर लजाकर या घबराकर दृष्टि नहीं हटाई। वह निडर थी। मुझे उसकी यह बात अच्छी लगती थी।

“कितने फूल तोड़े हैं अब तक?” उसने कुछ ठहर कर पूछा।

“झूठ नहीं बोलूँगा ! सिर्फ एक ! मगर यह फूल बहुत खास है।”

उसे झूठ से नफरत थी। सच सुनना पसंद करती थी। कड़वा हो तो भी। फिर उसी कॉलेज में तो पढ़ती थी।

“उससे भी यही कहा होगा, “यह फूल बहुत खास है।” वह कुछ मजा लेती, कुछ मजाक उड़ाती बोली,”फुसलाने का पुराना तरीका है।”

“नहीं पुष्पा, यह सच नहीं। मैं पहले भी झूठ बोल सकता था मगर ऐसा नहीं किया। सचमुच यह फूल बेहद खास है। औरों से अलग ! दुर्लभ है।”

प्रशंसा से वह प्रसन्न हुई। कुछ मूड में आ गई। “क्या खास है इसमें?” कुछ मजा लेते हुए बोली।

वह गर्व भरी नजरों से फूल को देखते हुए उसे अपनी चुटकी में घुमा रही थी, अपनी तारीफ सुनना चाह रही थी। मैंने अपना दाँव खेला।

“यह अगर उसकी इजाजत मिले तभी बताऊँगा।” “इजाजत है !” उसने बात को हँसी में उड़ाते हुए कहा।

“सच? क्या मुझे फूल तोड़ने की इजाजत है?” मैंने भी उसी अंदाज में उसके टालने की कोशिश को व्यर्थ करते हुए कहा।

अब वह मुश्किल में थी। इस बात को हँसी में उड़ाना कठिन था। वह गंभीर हो गई।

यही सही समय था अगला वार करने का, मुझे उसके मजबूत स्वभाव का भरोसा था, मैंने उसके हाथ के फूल पर अपनी हथेली रखकर दूसरे हाथ से उसकी हथेली को नीचे से सहारा देते हुए कहा,”सच पुष्पा। यकीन मानो। यह साधारण नहीं। इसका सौंदर्य, इसका रूप, इसकी महक, इसका सब कुछ अतुलनीय है। यह बहुत भाग्य से पाने लायक है।”

उस पर प्रशंसा का असर हो रहा था। उसे तारीफ अच्छी लगती थी। मुस्कुराने की कोशिश की।

“क्या करोगे इसका? तुम इसे सूंघकर छोड़ दोगे। मैं ऐसी … ” बोलते बोलते रुक गई।

अनजाने में ही वह फूलों के बहाने को छोड़कर सीधे अपने बारे में बोलने लगी थी।

मैंने अपने दिल पर हाथ रखते हुए कहा,”भगवान कसम, दिल में बसा कर रखूँगा।”

“यह काफी नहीं।”

मैंने उसके हाथ से गुलाब का फूल लेकर अपनी कमीज के बटन में टाँक लिया।

“इसे सदा के लिए अपनी जिन्दगी में जगह दूँगा।”

थोड़ी देर के लिए चुप्पी छाई रही।

“इतनी दूर जाने की जरूरत नहीं। वह सम्भलती हुई बोली।

मैं जानता था वह मुझे पसंद करती थी। और लड़कों को उतना भाव नहीं देती थी जितना मुझे।मगर उसे प्यार कह सकना मुश्किल था। शादी के निर्णय के लिए सिर्फ प्यार जरूरी होता है ऐसा न तो मैं मानता था न वह। मगर मैं उसे पाने के लालच में काफी आगे का वादा कर गया था। वह मुझे अच्छी लगती थी, बल्कि बहुत अच्छी लगती थी। तेज थी। सुंदर भी बहुत थी। गोरा रंग, खड़ी लम्बी नाक, लाल भरे होंठ, छरहरी। चुस्त जींस शर्ट में उसकी गठन खुलकर बिखरती। लम्बी, सीधी चलने वाली। सक्रिय रहती। कई लड़कियाँ जिन संकोचों में खुद को बांधे रखती हैं उनसे वह अलग थी। उसके साथ बात करने में मजा आता था। लगता था ऐसी उत्साही साथी मिले तो क्या बात है। कभी रात की तनहाई में अपने हाथ से करता तो उसकी कल्पना करता हुआ।

“थोड़ी दूर की इजाजत है?” मैंने फिर पूछा।

वह सिर झुकाकर हँसी,”तुम बुद्धू हो। कुछ समझते नहीं !”

मुझे गुदगुदी हुई। आखिरकार यह भी लड़की ही है, खुद कैसे कहेगी।

उसकी स्वीकृति मुझे विभोर कर गई। उम्मीद थी, मगर विश्वास नहीं था। लगा जन्नत मिल गई।

“तुम और लड़कियों की तरह नहीं हो, तुमसे सुनना अच्छा लगता है।”

“ओके ! मगर इसका मतलब संकेत समझने में नासमझी तो नहीं होती है।”

यह थी वो ! बोल सकती थी। मैं उसकी इसी खूबी पर तो मरता था।

“ठीक है।” मैंने सिर झुकाते हुए कहा, “मैं नतमस्तक हुआ।”

“खूब !” उसने मेरी उस अदा का आनन्द लिया,”मेरे सामने बार बार होना पड़ेगा। सोच लो?”

तो क्या वह भी कहीं अवचेतन में मुझसे स्थायी रूप से जुड़ने के लिए सोच रही है? बार बार झुकने से क्या मतलब है?

“मैं तो सदा से हूँ।” मैंने कहा। “मस्का मत लगाओ।” अब वह ऊपर हो रही थी।

झुके झुके मेरे दिमाग में एक खयाल आया। पुष्पा के लायक जवाब होगा।

“बताऊँ, और कितना झुकने की तमन्ना है?” “कितना?” वह मेरे गंतव्य को समझ नहीं पाई थी मैं उसे कहाँ ले जाना चाहता था।

मैं और झुका। उसके गले के नस की एक नीली सी छाया नीचे जाकर खो रही थी। उठानों के नीचे कुछ धड़क रहा था। दुपट्टा नहीं ओढ़ती थी।

“बस?” वह इसे खेल समझ रही थी।

मैं और झुका। इस बार उसके स्तन मेरे सामने थे। फ्रॉक में उभरे हुए। उनकी नोकों के बहुत हल्के उभार का पता चल रहा था। यह कहानी आप अन्तर्वासना डॉट कॉम पर पढ़ रहे हैं।

“बस?” मुझे पूरा झुकाने के चक्कर में वह बेखबर चुग्गा खाती कबूतरी की तरह जाल की तरफ बढ़ी जा रही थी।

मैं और झुका। उरोजों के नीचे की ढलान, समतल पेट और उससे नीचे उसकी संकरी कमर। फ्रॉक के कपड़े में लिपटी हुई। नीचे दोनों तरफ फैलते कूल्हे।

“गो ऑन।” वह जीत के नशे में गाफिल थी।

अब मैं बैठ गया, घुटनों पर। मेरा गंतव्य आ गया था जिसके सपने मैं बार बार देखता था। मैंने घुटनों पर बैठे सिर झुकाया। वह समझी कि अब मैं नमाज की मुद्रा में दोजानूँ होऊँगा। सोच रही थी मैं अंतत: साष्टांग बिछ जाउंगा। मैंने उसके नितम्बों को बाँहों में घेरा और कमर के नीचे उस स्थान पर जहाँ भीतर जांघों का संधिस्थल था उसमें मुँह घुसाकर जोर से चूम लिया। मेरे होटों पर और नाक पर कपड़ों की सलवटों के नीचे मुलायम गद्देदार मांसल उभार महसूस हुआ।

वह ठगी-सी खड़ी रही गई। उसके मुँह से बस आश्चर्य में निकला,”अरे !”

मैंने जहाँ चुम्बन की मुहर लगाई थी उस स्थान को देखते हुए कहा, “यह फूल सबसे अनूठा है। कुदरत का सबसे बेहतरीन करिश्मा। इसके सामने सब फूल बेकार हैं।”

वह चुप थी। एक आघात में। इतने बड़े दुस्साहस की उम्मीद नहीं की थी। मुझे लगा वह डाँटेगी और चल देगी। मगर मुझे उसके मेरे प्रति आकर्षण का भरोसा भी था। तभी मैं इतनी हिम्मत कर गया था। उसके चेहरे का भाव थोड़ा नरम पड़ा। उसमें सम्हलने की क्षमता बेशुमार थी। हाथों से मेरा सिर दूर हटाते हुए बोली,”यह क्या कर रहे हो?”

“वही जो मैं बाद में बहुत अच्छे से करूँगा।” उसे हराने के बाद अब मैं हावी होने की स्थिति में था। वह अभी तक अपनी तेज तर्रारी और तेज दिमाग को ही बहुत भाव देती आई थी।

वह कुछ देर चुप रह गई।

“छी: ! तुम्हें गंदा नहीं लगता?”

मैं उठा। उसके हाथ से गूलाब का फूल ले लिया। उसे चुटकियों में घुमाते हुए धीरे धीरे बोला,”मैं उस सबसे बेशकीमती फूल से सबसे खास व्यव्हार करूँगा। उसमें डूबकर प्यार करूंगा। उसकी पंखुड़ियाँ खोलूंगा- ऐसे।”

मैंने उंगलियों से गुलाब की धीरे धीरे उसकी पंखुड़ियाँ फैलाईं,”फिर उसे चूमूंगा, ऐसे, यहाँ।”

मैंने फैली पंखुड़ियों के बीच मुँह घुसाकर उसके भीतर गर्भस्थल को चूमा, चूमने की चुसकारी की जोर की आवाज की।

“बड़ी हिम्मत है !”

“और बताऊँ, क्या करूँगा?” पता नहीं कहाँ से आज मेरी हिम्मत और अक्ल दोनों काम कर रहे थे। आज मैं उसे आश्चर्य पर आश्चर्य दे रहा था। मैंने बाड़ से बबूल का एक सूखा काँटा तोड़ा और उसे फूल के गर्भ में चुभो दिया।

वह शर्म से लाल हो गई।

“अब बताओ।” मैंने कहा। जैसे पूछ रहा होऊँ,”कैसा रहा?”

मगर जो शर्म से सिकुड़ जाए वह पुष्पा क्या। वह तो बराबर का जवाब देने में यकीन रखती थी। उसे अपनी जवाब देने की क्षमता का यकीन था। उसने काँटे को फूल से निकाला जिसका नुकीला सिरा फूल के रस में भीगा हुआ था। उसने उसे धीरे धीरे उठाया और मुँह में लेकर चूस लिया।

मैं उसे देखता रह गया।

कहानी जारी रहेगी।

सुबह की स्वच्छ ताजी हवा में गुलाब के ताजा फूलों की खुशबू फैल रही थी। शहर के कोलाहल से दूर प्रदूषणमुक्त शांत वातावरण में फूलों की सुगंधभरी ताजी हवा में घूमते हुए मुझे बहुत ही अच्छा लग रहा था। हर तरफ गुलाब फैले थे भाँति भाँति के- लाल, गुलाबी, काले, बैंगनी, उजले… !

मैं उनके कलेक्शन की मन ही मन तारीफ करता क्यारियों के बीच काँटों से सावधानी से बचता घूम रहा था। पुष्पा थोड़ी दूर पर बाड़ के पास फूल तोड़ रही थी।

पुष्पा के पिताजी का बड़ा सा फूलों का बाग था, शहर के नजदीक ही एक गाँव में। वे फूलों की खेती करते थे। मैं छुट्टियों में वहाँ घूमने आया था। पुष्पा ने मुझे बुलाया था, ”आकर कभी मेरा बाग देखो। बहुत अच्छा लगेगा।”

उसने गलत नहीं कहा था। मुझे बहुत ही अच्छा लग रहा था। और फूलों की क्यारियो के बीच स्वयं फूल-सी खिली पुष्पा भी मुझे कम अच्छी नहीं लग रही थी। मैं भौंरे-सा उसके आकर्षण में घूम रहा था।

मैं घूमता घूमता उसके पास पहुँचा। वह कुशलता से काँटों से बचती हुई फूलों को डंठल से नीचे पकड़कर कैंची से काट लेती। मुझे पास आता देखकर उसके चेहरे पर एक गर्व और खुशी का भाव चला आया।

“बड़ी कुशलता से तोड़ती हो। काँटे नहीं चुभते?”

वह कुछ नहीं बोली। बस गर्व से मुस्कुराई।

मुझे उसका घमण्ड अच्छा लगा। काश, मैं इसे ही तोड़ लेता।

“मैं भी तोडूँ?”

“काँटे चुभेंगे !” उसकी आवाज में गर्व था।

“मुझे परवाह नहीं !”

“अच्छा!” उसने मुझे देखकर भौंहें उठाई,”लेट मी सी?” उसने अंग्रेजी में कहा। कैंची नहीं दी।

मैंने हाथ बढ़ाया और बहुत बचाकर एक डंठल को तोड़ने की कोशिश की। डंठल टूटकर टेढ़ी हो गई मगर डाल से अलग नहीं हुई। उसे अलग करने के लिए टूटी डंठल को घुमाया।

“जानते हो !” उसने कहा।

थोड़ी कोशिश से डंठल टूट गई मगर हाथ में काँटों की खरोंच लग ही गई। एक-दो पंखुड़ियाँ भी झटकने में टूट गईं। मैंने फूल उसके हाथ में दे दिया।

“देखा?” उसने खरोंच में जमा होते खून की बूंद को देखते हुए कहा।

उसने टोकरी में से छोटे-से डिब्बे से डेटाल भीगा रूई का फाहा निकाला और उससे खरोंच का लहू पोंछते हुए दबा दिया। वह डेटाल भीगा फाहा छोटी सी शीशी में साथ रखती थी। मैं उसके झुके सिर को, एक से मेरा हाथ पकड़े दूसरे से जख्म पर रुई घुमाते उसके गोरे नाजुक हाथों को देखता रहा।

“मगर …” मैंने बात आधी छोड़ दी। उसने उत्सुकता से मेरी ओर देखा।

“मैं तो एक खास फूल तोड़ना चाहता हूँ।” मैंने उसके चेहरे को गौर से देखते हुए पूरा किया।

उसके चेहरे पर क्षणमात्र के लिए एक अजब-सा भाव आया। बात को कुछ ताड़ती हुई-सी प्रतीत हुई। मैंने उसके प्रश्नवाचक चेहरे पर से दृष्टि हटाकर सर से पाँव तक नजर दौड़ाई और उसकी आँखों में देखते हुए आगे कहा,”अगर वह इजाजत दे तो !”

वह समझ गई। मगर लजाकर या घबराकर दृष्टि नहीं हटाई। वह निडर थी। मुझे उसकी यह बात अच्छी लगती थी।

“कितने फूल तोड़े हैं अब तक?” उसने कुछ ठहर कर पूछा।

“झूठ नहीं बोलूँगा ! सिर्फ एक ! मगर यह फूल बहुत खास है।”

उसे झूठ से नफरत थी। सच सुनना पसंद करती थी। कड़वा हो तो भी। फिर उसी कॉलेज में तो पढ़ती थी।

“उससे भी यही कहा होगा, “यह फूल बहुत खास है।” वह कुछ मजा लेती, कुछ मजाक उड़ाती बोली,”फुसलाने का पुराना तरीका है।”

“नहीं पुष्पा, यह सच नहीं। मैं पहले भी झूठ बोल सकता था मगर ऐसा नहीं किया। सचमुच यह फूल बेहद खास है। औरों से अलग ! दुर्लभ है।”

प्रशंसा से वह प्रसन्न हुई। कुछ मूड में आ गई। “क्या खास है इसमें?” कुछ मजा लेते हुए बोली।

वह गर्व भरी नजरों से फूल को देखते हुए उसे अपनी चुटकी में घुमा रही थी, अपनी तारीफ सुनना चाह रही थी। मैंने अपना दाँव खेला।

“यह अगर उसकी इजाजत मिले तभी बताऊँगा।” “इजाजत है !” उसने बात को हँसी में उड़ाते हुए कहा।

“सच? क्या मुझे फूल तोड़ने की इजाजत है?” मैंने भी उसी अंदाज में उसके टालने की कोशिश को व्यर्थ करते हुए कहा।

अब वह मुश्किल में थी। इस बात को हँसी में उड़ाना कठिन था। वह गंभीर हो गई।

यही सही समय था अगला वार करने का, मुझे उसके मजबूत स्वभाव का भरोसा था, मैंने उसके हाथ के फूल पर अपनी हथेली रखकर दूसरे हाथ से उसकी हथेली को नीचे से सहारा देते हुए कहा,”सच पुष्पा। यकीन मानो। यह साधारण नहीं। इसका सौंदर्य, इसका रूप, इसकी महक, इसका सब कुछ अतुलनीय है। यह बहुत भाग्य से पाने लायक है।”

उस पर प्रशंसा का असर हो रहा था। उसे तारीफ अच्छी लगती थी। मुस्कुराने की कोशिश की।

“क्या करोगे इसका? तुम इसे सूंघकर छोड़ दोगे। मैं ऐसी … ” बोलते बोलते रुक गई।

अनजाने में ही वह फूलों के बहाने को छोड़कर सीधे अपने बारे में बोलने लगी थी।

मैंने अपने दिल पर हाथ रखते हुए कहा,”भगवान कसम, दिल में बसा कर रखूँगा।”

“यह काफी नहीं।”

मैंने उसके हाथ से गुलाब का फूल लेकर अपनी कमीज के बटन में टाँक लिया।

“इसे सदा के लिए अपनी जिन्दगी में जगह दूँगा।”

थोड़ी देर के लिए चुप्पी छाई रही।

“इतनी दूर जाने की जरूरत नहीं। वह सम्भलती हुई बोली।

मैं जानता था वह मुझे पसंद करती थी। और लड़कों को उतना भाव नहीं देती थी जितना मुझे।मगर उसे प्यार कह सकना मुश्किल था। शादी के निर्णय के लिए सिर्फ प्यार जरूरी होता है ऐसा न तो मैं मानता था न वह। मगर मैं उसे पाने के लालच में काफी आगे का वादा कर गया था। वह मुझे अच्छी लगती थी, बल्कि बहुत अच्छी लगती थी। तेज थी। सुंदर भी बहुत थी। गोरा रंग, खड़ी लम्बी नाक, लाल भरे होंठ, छरहरी। चुस्त जींस शर्ट में उसकी गठन खुलकर बिखरती। लम्बी, सीधी चलने वाली। सक्रिय रहती। कई लड़कियाँ जिन संकोचों में खुद को बांधे रखती हैं उनसे वह अलग थी। उसके साथ बात करने में मजा आता था। लगता था ऐसी उत्साही साथी मिले तो क्या बात है। कभी रात की तनहाई में अपने हाथ से करता तो उसकी कल्पना करता हुआ।

“थोड़ी दूर की इजाजत है?” मैंने फिर पूछा।

वह सिर झुकाकर हँसी,”तुम बुद्धू हो। कुछ समझते नहीं !”

मुझे गुदगुदी हुई। आखिरकार यह भी लड़की ही है, खुद कैसे कहेगी।

उसकी स्वीकृति मुझे विभोर कर गई। उम्मीद थी, मगर विश्वास नहीं था। लगा जन्नत मिल गई।

“तुम और लड़कियों की तरह नहीं हो, तुमसे सुनना अच्छा लगता है।”

“ओके ! मगर इसका मतलब संकेत समझने में नासमझी तो नहीं होती है।”

यह थी वो ! बोल सकती थी। मैं उसकी इसी खूबी पर तो मरता था।

“ठीक है।” मैंने सिर झुकाते हुए कहा, “मैं नतमस्तक हुआ।”

“खूब !” उसने मेरी उस अदा का आनन्द लिया,”मेरे सामने बार बार होना पड़ेगा। सोच लो?”

तो क्या वह भी कहीं अवचेतन में मुझसे स्थायी रूप से जुड़ने के लिए सोच रही है? बार बार झुकने से क्या मतलब है?

“मैं तो सदा से हूँ।” मैंने कहा। “मस्का मत लगाओ।” अब वह ऊपर हो रही थी।

झुके झुके मेरे दिमाग में एक खयाल आया। पुष्पा के लायक जवाब होगा।

“बताऊँ, और कितना झुकने की तमन्ना है?” “कितना?” वह मेरे गंतव्य को समझ नहीं पाई थी मैं उसे कहाँ ले जाना चाहता था।

मैं और झुका। उसके गले के नस की एक नीली सी छाया नीचे जाकर खो रही थी। उठानों के नीचे कुछ धड़क रहा था। दुपट्टा नहीं ओढ़ती थी।

“बस?” वह इसे खेल समझ रही थी।

मैं और झुका। इस बार उसके स्तन मेरे सामने थे। फ्रॉक में उभरे हुए। उनकी नोकों के बहुत हल्के उभार का पता चल रहा था। यह कहानी आप अन्तर्वासना डॉट कॉम पर पढ़ रहे हैं।

“बस?” मुझे पूरा झुकाने के चक्कर में वह बेखबर चुग्गा खाती कबूतरी की तरह जाल की तरफ बढ़ी जा रही थी।

मैं और झुका। उरोजों के नीचे की ढलान, समतल पेट और उससे नीचे उसकी संकरी कमर। फ्रॉक के कपड़े में लिपटी हुई। नीचे दोनों तरफ फैलते कूल्हे।

“गो ऑन।” वह जीत के नशे में गाफिल थी।

अब मैं बैठ गया, घुटनों पर। मेरा गंतव्य आ गया था जिसके सपने मैं बार बार देखता था। मैंने घुटनों पर बैठे सिर झुकाया। वह समझी कि अब मैं नमाज की मुद्रा में दोजानूँ होऊँगा। सोच रही थी मैं अंतत: साष्टांग बिछ जाउंगा। मैंने उसके नितम्बों को बाँहों में घेरा और कमर के नीचे उस स्थान पर जहाँ भीतर जांघों का संधिस्थल था उसमें मुँह घुसाकर जोर से चूम लिया। मेरे होटों पर और नाक पर कपड़ों की सलवटों के नीचे मुलायम गद्देदार मांसल उभार महसूस हुआ।

वह ठगी-सी खड़ी रही गई। उसके मुँह से बस आश्चर्य में निकला,”अरे !”

मैंने जहाँ चुम्बन की मुहर लगाई थी उस स्थान को देखते हुए कहा, “यह फूल सबसे अनूठा है। कुदरत का सबसे बेहतरीन करिश्मा। इसके सामने सब फूल बेकार हैं।”

वह चुप थी। एक आघात में। इतने बड़े दुस्साहस की उम्मीद नहीं की थी। मुझे लगा वह डाँटेगी और चल देगी। मगर मुझे उसके मेरे प्रति आकर्षण का भरोसा भी था। तभी मैं इतनी हिम्मत कर गया था। उसके चेहरे का भाव थोड़ा नरम पड़ा। उसमें सम्हलने की क्षमता बेशुमार थी। हाथों से मेरा सिर दूर हटाते हुए बोली,”यह क्या कर रहे हो?”

“वही जो मैं बाद में बहुत अच्छे से करूँगा।” उसे हराने के बाद अब मैं हावी होने की स्थिति में था। वह अभी तक अपनी तेज तर्रारी और तेज दिमाग को ही बहुत भाव देती आई थी।

वह कुछ देर चुप रह गई।

“छी: ! तुम्हें गंदा नहीं लगता?”

मैं उठा। उसके हाथ से गूलाब का फूल ले लिया। उसे चुटकियों में घुमाते हुए धीरे धीरे बोला,”मैं उस सबसे बेशकीमती फूल से सबसे खास व्यव्हार करूँगा। उसमें डूबकर प्यार करूंगा। उसकी पंखुड़ियाँ खोलूंगा- ऐसे।”

मैंने उंगलियों से गुलाब की धीरे धीरे उसकी पंखुड़ियाँ फैलाईं,”फिर उसे चूमूंगा, ऐसे, यहाँ।”

मैंने फैली पंखुड़ियों के बीच मुँह घुसाकर उसके भीतर गर्भस्थल को चूमा, चूमने की चुसकारी की जोर की आवाज की।

“बड़ी हिम्मत है !”

“और बताऊँ, क्या करूँगा?” पता नहीं कहाँ से आज मेरी हिम्मत और अक्ल दोनों काम कर रहे थे। आज मैं उसे आश्चर्य पर आश्चर्य दे रहा था। मैंने बाड़ से बबूल का एक सूखा काँटा तोड़ा और उसे फूल के गर्भ में चुभो दिया।

वह शर्म से लाल हो गई।

“अब बताओ।” मैंने कहा। जैसे पूछ रहा होऊँ,”कैसा रहा?”

मगर जो शर्म से सिकुड़ जाए वह पुष्पा क्या। वह तो बराबर का जवाब देने में यकीन रखती थी। उसे अपनी जवाब देने की क्षमता का यकीन था। उसने काँटे को फूल से निकाला जिसका नुकीला सिरा फूल के रस में भीगा हुआ था। उसने उसे धीरे धीरे उठाया और मुँह में लेकर चूस लिया।

मैं उसे देखता रह गया।

कहानी जारी रहेगी। [email protected]

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